जो गलतियां मानव प्रकृति के साथ कर रहा है ये सब उसी का परिणाम है......

जो गलतियां मानव प्रकृति के साथ कर रहा है ये सब उसी का परिणाम है......

वहां का तापमान बाहर के तापमान से कई गुना ज्यादा था,शव वाहन की लंबी कतार थी, लकड़ियों का टीला सा बना हुआ था पूछने पर पता चला कि यह लकड़ियां शाम तक समाप्त हो जाएंगी पुनः रात में लकड़ियों वाला ट्रक आएगा, लोगों का तांता लगा हुआ था । वहां कार्य करने वाले लोगों को छोड़ दें तो और लोगों के चेहरे का भाव शून्य था।

प्रत्येक शव के साथ अधिकतम दो या तीन लोग ही थे तथा किसी किसी शव के साथ तो कोई नहीं था ।

मैं बहुत चकित था कि शमशान इतना शांत क्यों है कहीं से भी रोने की आवाज नहीं आ रही थी सिसकियां भी गुम हो गई थी।

सनातनी परंपरा के अनुसार महिलाओं का शमशान जाना वर्जित है और गर्भवती महिलाओं के लिए तो कल्पना भी नहीं की जा सकती परंतु वहां तो बहन भाई की लाश लेकर आई थी, मां बेटे की लाश लेकर आई थी गर्भवती पत्नी पति के साथ अपनी सांस को लेकर आई थी, कोई मित्र को लेकर आया था कोई रिश्तेदार को लेकर आया था पुलिस वाले लावारिस लाश लेकर आए थे।

वह समय मेरे जीवन का अब तक का सबसे कठिन समय था जब एक ग्यारह वर्ष की बेटी अपनी मां का शव लेकर शाम के 5:30 पर शमशान पहुंची, देखने में सामान्यतः प्राइवेट स्कूल में पढ़ने वाले मासूम बच्चों की तरह दिख रही थी संयोग से मैं उस समय वापस आने की योजना बना रहा था और शमशान के निकास द्वार पर आ गया था उसी समय गुड़िया ने पूछा "भैया डेड बॉडी कैसे जलाई जाएगी ?" उसके यह पूछने पर मैंने उससे जानना चाहा की आपके साथ के लोग कहाँ हैं तो उसने जवाब दिया "कोई नहीं है ड्राइवर अंकल उधर एंबुलेंस में है।" मन को विश्वास नहीं हुआ तो मैं उसको लेकर ड्राइवर के पास गया तथा ड्राइवर से बात किया तो पता चला कि एंबुलेंस में लड़की के मां का पार्थिव है। लड़की से बात करने पर पता चला कि पापा चार वर्ष पहले मर गए थे और मम्मी परसों कोरोना के कारण मर गई। दो दिन बाद आज डेड बॉडी मिली है, चाचा लोग घर पर हैं, उन लोगों को कोरोना ना हो जाए इसलिए वो लोग नहीं आए। उस लड़की की बात सुनकर मेरे मन मस्तिष्क में वेदना की सुनामी दौड़ रही थी। मेरे लिए जीवन का सबसे कठिन पल था मैं बार-बार गुड़िया की चेहरे पर देख रहा था वह शून्य भाव से मेरे बोलने का इंतजार कर रही थी, मैं खुद को संभालते हुए उससे पूछा आपने कुछ खाया है कि नहीं उसने बोला "परसों से कुछ नहीं खाया बस बीच-बीच में पानी पी लेती हूँ, तीन दिन से अस्पताल में ही हूँ अस्पताल वाले मम्मी को नहीं दे रहे थे।

मैं स्वयं भी एक हॉस्पिटल में अपने एक मित्र के मामा जी का पार्थिव लेने गया था, हम सभी प्रातः 10:00 बजे से प्रयास कर रहे थे समाज के कई प्रभावशाली लोगों से फोन भी करवाया, हॉस्पिटल के मालिक मुझे व्यक्तिगत रूप से जानते है इस सबके उपरांत भी पांच घंटे लग गए थे । अपने इस अनुभव के आधार पर मैं गुड़िया के इस विपदा और कठिन संघर्ष का अनुमान लगा लिया था। मैंने गुड़िया को खाने के लिए बिस्कुट और पानी दिया, बहुत आग्रह पर उसने बिस्कुट मुंह में लिया आधा टुकड़ा खाते ही गुड़िया ने पूछा "भैया मम्मी की डेड बॉडी को आज ही जलाना है तीन दिन हो गया मरे हुए" मैं उसको पानी पिलाते हुए बोला आप बैठो सब हो जाएगा। मैंने संघ और सेवा भारती के कार्यकर्ताओं की सहायता से लकड़ी की व्यवस्था की। यह सभी कार्यकर्त्ता इस संकट के काल में लगातार 20 दिनों से शमशान की व्यवस्था को संभाल रखे थे। नित्य प्रति दिन आना और वहां के सभी कार्यों को सुचारू रूप से चलाने का बीड़ा संघ के कार्यकर्ता ही उठा रखे थे। हलाकि उस माहौल में कोई भी व्यक्ति 2 घंटे से ज्यादा नहीं रह सकता तब भी अनवरत राष्ट्र की चिंता करने वाले लोग इस संकट काल में शमशान को भी राष्ट्र साधना का स्थान बना लिया।

लकड़ी की व्यवस्था के उपरांत पंडित जी की सहायता से आगे की क्रिया संपन्न हुई, उस समय भी मेरे मन मस्तिष्क का तूफान तेज गति से चल रहा था धरती के इस विपत्ति काल के लिए दोषी किसको कहूं कभी लग रहा था कि इस शमशान की भूख शांत नहीं हो रही है, जलती चिता की लकड़ियों की ध्वनि मानो चिल्ला चिल्ला कर कह रही थी कि "याद रखना लौट के आओगे किसी को कंधे में लेकर या किसी के कंधे पर" फिर दूसरे पल मन में आता था कि भगवान शंकर नाराज हैं और शिव तांडव के साथ सृष्टि को समेट रहे हैं। बनारस में मणिकर्णिका घाट पर विशेष होली शमशान की राख से खेला जाता है और प्रचलित गीत जो होली के समय गाया जाता है" ना साजन ना गोरी दिगंबर खेले मसाने में होली" इसी विचार के साथ मुझे यह भी लग रहा था कि संभवतः भगवान् शंकर की होली के लिए शमशान की राख कम पड़ रही है इस कारण से भी यह सब हो रहा है।

इस सभी विचारों के साथ मेरा मन वही आकार रूकता कि जो गलतियां मानव प्रकृति के साथ कर रहा है यह सब उसी का परिणाम है। भौतिकता के युग में हम सभी ने प्रकृति के अनुसार चलना छोड़ दिया है, अपनी असीमित भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करने हेतु हम सभी प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने में लगे हैं। सर्वशक्तिमान परम पिता परमेश्वर से झूठ बोलने लगे और यह भूल गए कि ऊपरवाला (ईश्वर) सबकुछ देख रहा है। सोचिये आपकी बनायी हुई किसी भी संपत्ति को कोई क्षति पहुचाता है तो आपको कैसा लगता है ऐसे ही ईश्वर द्वारा बनायी गई प्राकृतिक संपत्तियों को हम सभी क्षति पहुंचाते हैं, ईश्वर द्वारा रची गई रचनाओं के साथ छेड़छाड़ करते हैं जानवरों को मारना, पेड़ पौधों को काटना उनको कष्ट पहुंचाना आदि।
अब सर्वशक्तिमान परमपिता परमेश्वर के द्वारा रचित व्यवस्था को नष्ट करने का प्रयास किया है, कष्ट दिया है, मानवता का चिंतन छोड़ दिया। अपने वर्चस्व और प्रभाव की लड़ाई में सब कुछ भूल कर अपने हित के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं, अपना स्वार्थ और भोग के लिए इस दुनिया को किस संकट में डाल दिया है।

अब प्रकृति रुष्ट है और प्रतिकार कर रही है। मनुष्य को इस समय चिंतन करना पड़ेगा कि उससे गलतियां कहां-कहां हुई है, उन सभी गलतियों के लिए प्रकृति से क्षमा मांगना पड़ेगा और इस संकटकाल में एक दूसरे का साथ देते हुए निकलने का प्रयास करना है।