भगवान् महावीर के दर्शन में विसर्जन - साध्वी प्रमुखा कनकप्रभा

भगवान् महावीर के दर्शन में विसर्जन - साध्वी प्रमुखा कनकप्रभा

‘लेखिका तेरापंथ धर्म संघ की अष्टम् असाधारण साध्वी प्रमुखा हैं जो गत पचास वर्षों से नारी चेतना को जागृत करने का अद्भुत कार्य कर रही हैं। उनकी प्रेरणा और प्रोत्साहन भरे मार्गदर्शन में तेरापंथ महिला समाज ने अभूतपूर्व प्रगति की है। महिला समाज अपने संस्कारों और संस्कृति को अक्षुण्ण रखते हुए विकास पथ पर अग्रसर हो इसके लिए वे अहर्निश प्रयासरत हैं।’’

मनुष्य के पास आंखें हैं। आंखों का काम है देखना, देखती हैं आंखें और दर्शन की प्रतिक्रिया होती है मन पर, मन की प्रतिक्रिया का असर होता है मनुष्य के व्यवहारों पर। दृश्य पदार्थ मनोज्ञ भी होते हैं और अमनोज्ञ भी। अमनोज्ञ दर्शन की प्रतिक्रिया से घबराकर मनुष्य देखना ही बन्द कर दे-यह पक्ष व्यावहारिक नहीं है। अनुकूलता के क्षणों में सुखानुभूति स्वाभाविक है। प्रतिकूल परिस्थितियां खीज और असन्तुलन पैदा करती हैं। यह भी अस्वाभाविक नहीं है। भगवान् महावीर ने एक सूत्र दिया- ‘दिद्रुहि णिव्वेयं गच्छेज्जा’ व्यक्ति विषयों के प्रति विरक्त रहे।
देखना पाप नहीं है, पाप है उसमें आकण्ठ निमग्न होना। सुनना बुरा नहीं है, बुराई है राग-द्वेषमूलक मन की प्रवृत्ति। स्पर्श, रस और घ्राण की भी यही स्थिति है। मनुष्य अपनी इच्छाओं का विसर्जन करना सीख ले तो आसक्ति स्वयं कम हो जाती है।
मनुष्य की आकांक्षा आवश्यकताओं का अनुगमन करती तो संग्रह और विसर्जन का प्रश्न ही नहीं उठता। अतिरिक्त संग्रह की एषणा से मनुष्य अर्जन पद्धति में अनैतिक बनता है। संग्रहजन्य काल्पनिक सुख उसे यथार्थ से भटका देता है। उस भटकने से बचाने के लिए विसर्जन एक आधार बन सकता है।
विसर्जन अर्थ का होता है, व्यापार का होता है, उपकरणों का होता है, बुद्धि का होता है और इसके दूसरे भी कई प्रकार हो सकते हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ के विसर्जन का भी उल्लेख मिलता है। आत्म-तत्त्व के साथ जितने विजातीय तत्वों का संयोग होता है, उन सबका विसर्जन होना आवश्यक है। जब तक यह नहीं होता है, तब तक सहज आनन्द का अनुभव नहीं हो सकता।
भगवान महावीर ने विसर्जन का प्रकार और उसका फलित बताते हए कहा-‘वंता लोगस्स, संजोगं, जंति वीरा महाजाणं।’ लोक संयोग का त्याग करने वाले वीर महायान (निर्वाण) प्राप्त करते हैं। विसर्जन का यह प्रकार नैतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक सभी दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है।
लोकैषणा मनुष्य को भ्रान्त बनाती है। जिस व्यक्ति में यह जितनी प्रबलता से होती है, वह उतना ही पराङ्मुख बनता है। आत्मोन्मुख बनाने के लिए बाह्य उपकरण सामग्री से ममत्व हटाना आवश्यक है। ममकार और अहंकार विसर्जन के बाधक तत्त्व हैं।
विसर्जन का सूत्र भगवान् महावीर ने अपने समय में दिया। आचार्यश्री तुलसी उसी सूत्र को अपने युग की भाषा में प्रस्तुत कर रहे हैं। वर्तमान परिस्थितियों के संदर्भ में विसर्जन की उपयोगिता स्वतःसिद्ध है।
आज देश की आर्थिक दशा सन्तुलित नहीं है। एक ओर अमीरी का प्रदर्शन तथा दूसरी ओर गरीबी की यातनायें। अमीरी और गरीबी के संघर्ष से दो वर्गों की निष्पत्ति हुई है। एक वर्ग दूसरे पर दोषारोपण करता है और दूसरा वर्ग प्रतिपक्षी की भूलें दोहराता है। आर्थिक समस्या को समाधान देने के लिए हिंसात्मक पद्धतियां काम में आ रही हैं। सत्याग्रह, अनशन, असहयोग आन्दोलन, अवज्ञा आन्दोलन आदि अहिंसानिष्ठ प्रयोगों में हिंसा उभर रही है। कुछ असामाजिक तत्त्वों के नेतृत्व में कर्मकर वर्ग हिंसा पर उतारू हो रहा है। चारों ओर नक्सलपंथियों का आतंक छा रहा है। इस विषम परिस्थिति में मनुष्य शान्ति के लिए उत्सुक है। शान्ति यदि कहीं है तो आदमी के मन में है। मानसिक शान्ति को उपेक्षित करके बाह्य जगत में भटक रहा है। मनुष्य की सबसे बड़ी भूल यही है। इस भूल का समाधान है ‘विसर्जन’।
विसर्जन अपने लिए किया जाता है। इसका प्रासंगिक फल समाज को मिलता है। इससे आत्महित के साथ सामाजिक समस्याओं का समाधान मिलता है। व्यक्तिगत स्वामित्व के विस्तार की इच्छा का विसर्जन ही लोकैषणा का विसर्जन है। अभ्यास की भूमिका पर वस्तुओं का विसर्जन भी किया जाता है।

साध्वी प्रमुखाश्री कनकप्रभाजी के अमृत महोत्सव पर अखिल भारतीय तेरापंथ महिला मंडल द्वारा प्रदत आलेख।