शौर्य, अनुशासन और राष्ट्र निर्माण: संघ की 100 वर्ष की यात्रा

शौर्य, अनुशासन और राष्ट्र निर्माण: संघ की 100 वर्ष की यात्रा

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) भारतीय समाज और राष्ट्र जीवन की यात्रा का एक अद्वितीय अध्याय है। अपने 100 वर्षों में यह केवल एक संगठन भर नहीं रहा, बल्कि एक विचारधारा, सांस्कृतिक चेतना और निस्वार्थ समाज सेवा का प्रतीक बना।1925 की विजयादशमी के दिन डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार ने संघ को औपचारिक रूप दिया। उनका जीवन बचपन से ही राष्ट्रभक्ति और सेवा की भावना से ओतप्रोत रहा।

कोलकाता में मेडिकल शिक्षा के दौरान वे अनुशीलन समिति से जुड़े और स्वतंत्रता आंदोलन की गतिविधियों में सक्रिय रहे।संघ का बीज कई वर्षों की सोच और अनुभव से विकसित हुआ था। इसका लक्ष्य केवल हिन्दू समाज का संगठन नहीं, बल्कि संपूर्ण समाज की नैतिक चेतना, संस्कृति और आत्मबल को जगाना था। डॉ. हेडगेवार ने स्पष्ट किया कि ‘हिन्दू’ शब्द बहिष्कार का नहीं, बल्कि समावेशी भाव का प्रतीक है। वास्तव में, संघ व्यक्ति निर्माण के माध्यम से समाज और अंततः राष्ट्र के निर्माण पर बल देता है। संघ के स्वयंसेवक सेवा कार्यों में हर समय अग्रणी दिखे। चरखी-दादरी विमान दुर्घटना, गुजरात भूकंप या केरल की बाढ़—हर संकट में स्वयंसेवकों ने बिना भेदभाव मानवता की सेवा की।

महिलाओं को संगठित करने के लिए राष्ट्र सेविका समिति बनाई गई, जो संघ की दृष्टि में पुरुषों के पूरक के रूप में समाज जीवन में नेतृत्व की भूमिका निभा रही है। समाज सेवा और सांस्कृतिक जागरण में महिलाओं का योगदान संघ के कार्यकलापों का अभिन्न हिस्सा है। संघ केवल संगठन के विस्तार को लक्ष्य नहीं मानता, बल्कि भारत को विश्वगुरु के रूप में स्थापित करने का ध्येय रखता है। प्रार्थना का समापन “भारत माता की जय” के साथ होता है, जो केवल उद्घोष नहीं, बल्कि आत्मीयता और संकल्प का प्रतीक है। वैश्विक परिप्रेक्ष्य में संघ भारतीय संस्कृति और धर्म-संतुलन को समस्याओं के स्थायी समाधान के रूप में प्रस्तुत करता है। संघ ने सदैव सामाजिक समानता और समरसता पर बल दिया है। उसके अनुसार मंदिर, पानी और श्मशान पर सभी का समान अधिकार होना चाहिए। जातिवाद और जड़वाद समाज की प्रगति के मार्ग में बाधा हैं। कमजोर वर्गों को नेतृत्व के अवसर देना और सबको साथ लेकर आगे बढ़ना संघ की प्राथमिकताओं में रहा है।

धर्म को संघ सत्य तत्त्व मानता है, जहाँ बदलाव किसी धर्मांतरण से नहीं बल्कि स्वभाव और कर्तव्य से होते हैं। परिवार प्रबोधन, बच्चों में संस्कार, और भारतीय संस्कृति का संरक्षण इसका केंद्र है। शिक्षा क्षेत्र में संघ ने गुरुकुल परंपरा, संस्कृत और भारतीय भाषाओं को महत्व दिया। इसके साथ ही स्वदेशी और आत्मनिर्भरता को राष्ट्र विकास की आधारशिला माना गया है। संघ हमेशा संविधान और व्यवस्था का समर्थन करता रहा है। राष्ट्रीय सुरक्षा, जनसंख्या संतुलन और घुसपैठ जैसे विषय उसके प्रमुख चिंतन में हैं।

वह मानता है कि केवल कानून और राष्ट्रीय चरित्र ही स्थायी सुरक्षा प्रदान कर सकते हैं।संघ पर अक्सर आलोचना होती रही है, किन्तु हिंसक गतिविधियों में उसकी संलिप्तता के प्रमाण कभी सामने नहीं आए। समाज और विद्वानों ने समय-समय पर इसके योगदान और चरित्र के आधार पर इसकी प्रासंगिकता को पहचाना। राजनीति में भी संघ ने संयमित और समीचीन दृष्टिकोण अपनाया, और विभिन्न सरकारों के साथ समाजसेवा और राष्ट्र उन्नति में योगदान दिया।

आगामी वर्षों में संघ का उद्देश्य चरित्र निर्माण, देशभक्ति का जागरण और कार्य का समाज के हर वर्ग तक विस्तार करना है। व्यक्ति से समाज और समाज से राष्ट्र में परिवर्तन की इसकी परिकल्पना आज भी प्रासंगिक है।राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की 100 वर्षों की गाथा यह प्रमाणित करती है कि शौर्य, अनुशासन और सेवा भाव से समाज और राष्ट्र का निर्माण संभव है। यह केवल संगठन नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक आत्मा और विश्व में उसकी प्रतिष्ठा के पुनर्निर्माण का प्रतीक है।

आलेख : चन्द्रपाल प्रजापति, नोएडा